एक रेत -घरौंदा मेरा था , एक रेत - घरौंदा उसका था ...
एक टूटी छन्नी उसकी थी .......
एक गोल सी चकरी मेरी थी !
एक बोली मेरी जो सुनती .....
दौडी -दौडी आती थी वो ....
खिड़की से वो झाका करती ...
कैसे स्वांग रचाती थी वो ......
बड़ी बड़ी सी आंखे उसकी .........
कितने सवाल बरसाती थी वो ....!
उस पगली को जो भी कहता ...
सब सच मान ,सुन जाती थी वो ....
लंबे काले बाल थे उसके ...
चूम हवा खुल जाते थे .......
चोटी उसकी जो मै खिचु ......
एक मीठी गाली सुनाती थी वो ......
गली गली हम घुमा करते .....
सब जग अपना बनाती थी वो .
प्यारी - तोतली बातों से ।
दिल सब का बहलाती थी वो ......
जो अम्मा उसको डाट लगा दे .....
चुगली मुझसे लड़ती थी वो .....
थक जाती जब रो -रोकर ......
तो मेरे कंधे सो जाती थी वो .........!!
खेल -खेल में दुनिया बसती .....
आप ही रोंती , आप ही हँसती .....
मुझसे कहती "तुम ताम पल दाओ "......
ख़ुद रोंटी बैठ बनाती थी वो .......!
एक दिन मै रूठा था उससे ,
गुस्सा भी फुटा था उसपे .....
अपनी रोटी दरिया में फेंकी॥
यूँ करवाचौथ मानती थी वो....
और ,
जिस दिन मै मिलने ना आता ......
मीरा सी बन जाती थी वो ...!!
वैसे तो तेज़ हवा से भी डरती ...
पर कभी नहीं जताती थी वो .....
कास कर मेरा हाथ पकड़ कर .........
पेडों से भूत भगाती थी वो ...
एक शाम भी ऐसे आई जब ........
खिड़की उसकी खली थी ........
ना स्वांग रचाती वो आई ..
ना गाली की गुन्जाईस थी ......
चेहरा उसका भूल गया मै .......
गाली उसकी याद नहीं .........
दिन भर तो हँस भी लेता हूँ .......
शाम को बड़ा रुलाती हैं वो .....